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अ॒यं मे॑ पी॒त उदि॑यर्ति॒ वाच॑म॒यं म॑नी॒षामु॑श॒तीम॑जीगः। अ॒यं षळु॒र्वीर॑मिमीत॒ धीरो॒ न याभ्यो॒ भुव॑नं॒ कच्च॒नारे ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayam me pīta ud iyarti vācam ayam manīṣām uśatīm ajīgaḥ | ayaṁ ṣaḻ urvīr amimīta dhīro na yābhyo bhuvanaṁ kac canāre ||

पद पाठ

अ॒यम्। मे॒। पी॒तः। उत्। इ॒य॒र्ति॒। वाच॑म्। अ॒यम्। म॒नी॒षाम्। उ॒श॒तीम्। अ॒जी॒ग॒रिति॑। अ॒यम्। षट्। उ॒र्वीः। अ॒मि॒मी॒त॒। धीरः॑। न। याभ्यः॑। भुव॑नम्। कत्। च॒न। आ॒रे ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:47» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:30» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह सोम ओषधि क्या करती है, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (अयम्) यह (पीतः) पान किया गया सोमलता का रस (मे) मेरी (वाचम्) वाणी को (उशतीम्) कामना करती हुई (मनीषाम्) बुद्धि को (उत्, इयर्त्ति) बढ़ाता है जिससे (अयम्) यह जन कामना को (अजीगः) प्राप्त होता है जिससे (अयम्) यह (षट्) छः प्रकार की (उर्वीः) भूमियों को (धीरः) ध्यान करनेवाला बुद्धिमान् जन (न) जैसे (अमिमीत) निर्म्माण करता है और (याभ्यः) जिन से (आरे) दूर वा समीप में (कत्) कभी (चन) भी (भुवनम्) संसार को रचता है, यह वैद्यकशास्त्र की रीति से बनाने योग्य है ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जिस पिये हुए से वाणी, बुद्धि, शरीर बढ़े और जिससे शास्त्र उत्तम प्रकार ग्रहण किये जायें, इसका ही सेवन करना चाहिये, न कि बुद्धि आदिकों के नाश करनेवाले का ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स सोमः किं करोतीत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथायं पीतः सोमो मे वाचमुशतीं मनीषामुदियर्त्ति येनाऽयं जनः काममजीगः। येनायं षडुर्वीर्धीरो नामिमीत याभ्य आरे कच्चन भुवनममिमीत सोऽयं वैद्यकशास्त्ररीत्या निर्मातव्यः ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) (मे) मम (पीतः) (उत्) (इयर्त्ति) उन्नयति (वाचम्) (अयम्) (मनीषाम्) प्रज्ञाम् (उशतीम्) कामयमानाम् (अजीगः) गच्छति प्राप्नोति (अयम्) (षट्) (उर्वीः) षड्विधा भूमीः (अमिमीत) (धीरः) ध्यानवान् मेधावी (न) (याभ्यः) (भुवनम्) (कत्) कदा (चन) अपि (आरे) दूरे समीपे वा ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! येन पीतेन वाग्बुद्धितनु वर्धेत येन शास्त्राणि सङ्गृहीतानि स्युस्तस्यैव सेवनं कार्यं न च बुद्ध्यादिनाशकस्य ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! ज्याचे (सोमलतेचे) प्राशन केल्याने वाणी, बुद्धी व शरीर वाढते व ज्याद्वारे शास्त्राचे उत्तम प्रकारे ग्रहण केले जाते त्याचेच प्राशन केले पाहिजे, बुद्धीचा नाश करणाऱ्याचे नव्हे. ॥ ३ ॥